Monday, October 20, 2014

झूल रहे कंदील हवा में ......! नवगीत



झूल रहे कंदील हवा में
क्या क्या रंग दिखाएँ

रोशनियाँ तीली ने बदलीं
चकरी हुई सयानी
सहमी सहमी जले फुलझड़ी
गुपचुप कहे कहानी

राकेट फुर्र हुये तेजी से
वापस घर ना आएँ .

आँगन में जगमगा रही है
ये बनावटी लड़ियाँ
यूँ तो जले दीप बाती 
पर ,टूट रही है कड़ियाँ

बिखर रहे माला के मोती
शायद ही जुड़ पाएँ 

हुई विलीन कहाँ, ना जाने
वह खुशियों की दुनिया
तारे गिनती बैठी है
आँगन में छोटी मुनियाँ

शायद कोई तारा टूटे
खुशियाँ घर मेंआएँ 
--  शशि पुरवार
१९ /९ /१३

आप सभी ब्लोगर मित्रों सपरिवार दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ।

Thursday, October 9, 2014

यादों के झरोखों से ---

पटना का वह घर जहाँ बचपन ने उड़ान भरी थी,पटना बाद में तो कभी नहीं जा ही सकी, जिनके साथ वो हसीन यादें जुड़ीं थी वो तो कब से तारे बन गए. आज ४० वर्षों बाद भी बाहर से यह घर वैसा ही खड़ा है कुछ परिवर्तन नहीं दिखा। २०- २५ कमरों का यह घर जहाँ चप्पे चप्पे पर बचपन की अनगिन यादें जुडी है। चुपके से तहखाने में छुप जाना, आँगन में खेलना ...... गंगा जी जो घर से ज्यादा दूर नहीं थी, नित गंगा जी में डुबकी लगाना ……… आज यादों की आंधी ने अतीत के पन्नों को पलटना शुरू कर दिया है. सोचा आपसे साझा करूँ। 

मन में ख्वाहिश थी उस जगह पर जाकर यादों को थोड़ा ताजा करूँ। आज अचानक दिवाली से पूर्व मेरे प्यारे कजिन भाई  उसने ख़ास मेरे लिए पटना जाकर यह तस्वीर ली और मुझे भेजी।
हम बचपन में साथ रहते थे बहुत सुखद अहसास था. आज यह घर तो हमारा नहीं रहा किन्तु यादें आज भी उतनी ही अपनी है. तब दिवाली बहुत ख़ास होती थी. रतजगा होता था.२ दिन तक मिठाईयां बाँटते थे अब यह सब यादें तस्वीरों में कैद होकर वक़्त में धूमिल हो गई है. कुछ पंक्तियाँ जहन में उभर रही है हालांकि  यादों की आंधी के यह  उड़ते तिनके भर है ----


छज्जों की पुरानी लकड़ी अपने दुर्भाग्य की
कहानी कह रही है
उस पर उग आई लावारिस घास
जैसे कब्ज़ा किये हुए बैठी है
पपड़ाती इन दीवारों से जुड़ा है
एक सुखद अहसास
कभी झरोखें से झाँकना
बालकनी पर लटकना
घूम घूम कर हर कमरों में
अपने होने के अहसास को
दर्ज कराना,
कभी शैतानियाँ, कभी नादानियां
वक़्त पंख लगाकर उड़ गया और
यह मकान आज भी उन्ही यादों को समेटे
बस इसी इन्तजार में खड़ा है कि
कभी तो जंग लग गए ताले टूटेंगे
कोई तो आएगा इन दीवारों पर पुनः
रंगरोगन कराने, जर्जर हो रहे छज्जों को
गिरने से बचाकर उसके अस्तित्व को मिटने से बचाने .........!
 -- शशि पुरवार

आज सोमवार से पहले ही पोस्ट लगा दी , मन चंचल आज नियम कायदे तोड़ देना चाहता है - मेरी यादों में आपको भी शामिल करने का मन हुआ।  

Monday, October 6, 2014

क्षणिकाएँ - माहिया - माँ



माँ तुम हो
शक्तिस्वरूपा
मेरी भक्ति का संसार
माँ से ही प्रारंभ
यह जीवन
माँ ही उर्जा का संचार
नीड बनाने में कितनी
खो  गयी थी  माँ
उड़ गए
पंछी घोसलों से
फिर तन्हा हो गयी है माँ
-- शशि पुरवार
-----------------------
१६ / ९ /१३

माहिया  --
 
न्यौछावर करती है
माँ घर में खुशियाँ
खुद चुन चुन भरती है


बच्चों की शैतानी
माँ बचपन जीती
नयनों झरता पानी


ममता की माँ धारा
पावन ज्योति जले
मिट जाए अँधियारा


माँ जैसी बन जाऊँ
छाया हूँ उनकी
कद तक न पहुँच पाऊँ


चंदन सा मन महके
ममता का आँचल
खिलता, बचपन चहके।


६ 

माँ  जैसी बन जाऊं
छाया हूँ उनकी
कद तक न  पहुंच पाऊं



-- शशि पुरवार
२९ सितंबर २०१४


 माँ  जैसी बन जाऊं
छाया हूँ उनकी
कद तक न  पहुंच पाऊं




Monday, September 29, 2014

याद बहुत बाबूजी आए



यह गीत मेरे पिता तुल्य  नानाजी को समर्पित  है , हम चाहें कितने भी बड़े क्यों ना हो जाएँ किन्तु कुछ स्मृतियाँ अमिट  होतीं है। उनके स्मरण में --

स्मृतियोँ के घन जब घिरकर,
मन के नभमण्डल पर छाए।
याद बहुत बाबूजी आए

बाबूजी से ही सीखा था
दो और दो होते हैं चार
जीवन की अनगढ़ राहों को
अच्छे काम करें गुलजार
नन्हें हाथ थामकर जिसने
गुर, जीने के सभी सिखाए
याद बहुत बाबूजी आए

होगा पथ में उजियारा भी
उनकी शिक्षा को अपनाया
सूने मन के गलियारे में
एक ज्ञान का दीप जलाया
कभी सहेली कभी सखा बन
हर नखरे चुपचाप उठाए
याद बहुत बाबूजी आए

चिंता चाहे लाख बड़ी हो
हँसी सदा मुख पर रहती थी
तुतलाती बतियाँ चुपके से
फिर काँधे पर ही सोती थी
बरगद की शीतल छाया में
जिसने सपने सुखद सजाए
याद बहुत बाबूजी आए

- शशि पुरवार

8/9/2014  

Monday, September 22, 2014

नन्हा कनहल




खिला बाग़ में ,
नन्हा  कनहल
प्यारा लगने लगा महीना
रोज बदलते है मौसम ,फिर
धूप -छाँव का परदा झीना।

आपाधापी में डूबे थे
रीते कितने, दिवस सुहाने
नीरसता की झंझा,जैसे
मुदिता के हो बंद मुहाने

फँसे मोह-माया में ऐसे
भूल गए थे,खुद ही जीना

खिले फूल की इस रंगत में
नई किरण आशा की फूटी
शैशव की तुतलाती बतियाँ
पीड़ा पीरी की है जीवन बूटी

विषम पलों में प्रीत बढ़ाता
पीतवर्ण, मखमली नगीना .
--- शशि पुरवार

Monday, September 15, 2014

हिंदी दिवस




हिंद की रोली
भारत की आवाज
हिंदी है बोली .

भाषा है  न्यारी
सर्व गुणो की  खान
हिंदी है प्यारी
३ 
गौरवशाली 
भाषाओ का सम्मान
है खुशहाली

है अभिमान
हिंदुस्तान की शान
हिंदी की  आन।

कवि को भाये
कविता का सोपान
हिन्दी बढ़ाये   

वेदों की गाथा
देवों  का वरदान
संस्कृति ,माथा।
सरल पान 
संस्कृति का सम्मान
हिंदी का  गान

सर्व भाषाएँ
हिंदी में समाहित
जन आशाएं
चन्दन रोली
आँगन की तुलसी
हिंदी रंगोली

१०

मन की भोली
सरल औ सुबोध
शब्दो की टोली
११

सुरीला गान
असीमित साहित्य 
हिंदी सज्ञान

१२
बहती धारा
वन्देमातरम है
हिन्द का नारा
१३
अतुलनीय 
राजभाषा सम्मान
है वन्दनीय।
१४
जोश उमंग
जन जन में बसी
राष्ट्र तरंग
१५
ये अभिलाषा
राष्ट्र की पहचान
विश्व की आशा .
१६
यही चाहत
सर्वमान्य हो हिंदी
विश्व की भाषा .

हम  तो रोज ही हिंदी दिवस मनाते है हिंदी  दिवस की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ -- -शशि पुरवार

Monday, September 8, 2014

जाम छलकाने के बाद






धूप सी मन में खिली है ,मंजिले पाने के बाद
इन हवाओं में नमी है फूल खिल जाने के बाद १

जिंदगी लेती रही हर रोज हमसे इम्तिहान
प्रीति ही ताकत बनी है गम के मयखाने के बाद २

छोड़िये अब दास्ताँ , ये प्यार की ताकीद है  
नज्म हमने भी कही फिर प्रेम गहराने के बाद ३

तुम वहीं थे ,मै वहीं थी और शिकवा क्या करें
मौन बातों की झड़ी थी , दिल को बहलाने के बाद ४  

प्यार का आलम यही था ,रश्क लोगों ने किया
मोम सी जलती रही मै इश्क  फरमाने के बाद ५

खुशनुमा  अहसास है यह बंद पृष्ठों में मिला
गंध सी उड़ती रही है फूल मुरझाने के बाद ६

वक़्त बदला ,लोग बदले ,अक्स बदला  प्रेम का
मीत बनकर लूटता है , जाम छलकाने के बाद ७

प्रेम अब जेहाद बनकर, आ गया है सामने
वो मसलता है कली को ,हर सितम ढाने के बाद ८

-- शशि पुरवार

Monday, September 1, 2014

हवा शहर की



हवा शहर की बदल गयी
पंछी मन ही मन घबराये

यूँ जाल बिछाये बैठें है
सब आखेटक मंतर मारे
आसमान के काले बादल
जैसे ,जमा हुए  है सारे.

छाई ऐसी  घनघोर   घटा
संकट,  दबे पाँव आ  जाये

कुकुरमुत्ते सा ,उगा  हुआ है
गली गली ,चौराहे  खतरा
लुका छुपी का ,खेल खेलते
वध जीवी ने ,पर  है कतरा

बेजान  तन पर नाचते है
विजय घोष करते, यह  साये .

हरे भरे वन ,देवालय पर
सुंदर सुंदर रैन बसेरा
यहाँ गूंजता मीठा कलरव
ना घर तेरा ना घर मेरा

पंछी  उड़ता नीलगगन में
किरणें नयी सुबह ले आये.
  ४ जुलाई , २०१४

Monday, August 25, 2014

आदमी की आज है दरकार क्या



जंग दौलत की छिड़ी है रार क्या
आदमी की आज है दरकार क्या १

जालसाजी के घनेरे मेघ है
हो गया जीवन सभी बेकार क्या२

लुट रही है राह में हर नार क्यों
झुक रहा है शर्म से संसार क्या ३

छल रहे है दोस्ती की आड़ में
अब भरोसे का नहीं किरदार क्या ४

गुम हुआ साया भी अपना छोड़कर
हो रहा जीना भी अब दुश्वार क्या ५

धुंध आँखों से छटी जब प्रेम की
घात अपनों का दिखा गद्दार क्या६

इन निगाहों में खलिस थी पल रही
आइना भी खोलता है सार क्या  ७

खिड़कियाँ तो बंद हिय की खोलिए
माफ़ अपनों को करो ,तकरार क्या८

धड़कने क्यों हो रही है अजनबी 
रंग जीवन के सभी उपहार  क्या ९

बाँट लो खुशियाँ  सभी जीवन है कम
ख्वाब अँखियों के करे साकार क्या १०

"शशि " कहे तुम रंज अपने भूलकर
बढ़ चलो राहों में अपनी ,वार क्या ११
----------- शशि पुरवार

Wednesday, August 20, 2014

विषैला हमराही

ताँका --

स्वार्थ में अंधे
नोच रहे बोटियाँ
धूर्त सियार
मुख से टपकती
छलिया निशानियाँ

स्वार्थ का चश्मा
सूट बूट पहने
आया है प्राणी
चाटुकार ललना
नित नयी कहानी।
भगवा वस्त्र
हाथों में कमंडल
शीश पे शिखा
अंधी श्रद्धा से लूटे
बिखरी काली निशा।

सेदोका -

१ 
धवल वस्त्र
पहन इठलाये
मन के कारे जीव
मुख में पान
खिसियानी हंसी
अनृत कहे जीभ।  
भोले चहरे
कातिलाना अंदाज
शब्द  गुड की डली
मौकापरस्त
डसते  है जीवन
इनसे दूरी भली।
३ 
साँचा   है साथी 
हर पल का साथ
कोई बूझ न सका
दिल के राज
विषैला हमराही 
आस्तीन का है साँप।
 -- शशि पुरवार

नमस्कार मित्रो कुछ व्यक्तिगत कारणों से नियमित पोस्ट नहीं कर सकी थी परन्तु अब से नियमित प्रति सोमवार सपने पर प्रकाशन होगा , आप अपना स्नेह और अमूल्य टिप्पणी से हमें कृतार्ध करें।  आप सबकी शिकायत भी अब हम दूर कर देंगे , आपसे मिलेंगे आपके ब्लॉग पर -- शुभ मंगलम - शशि पुरवार

Friday, August 15, 2014

उठो ऐ देश वासियों। . जय हिन्द जय भारत





उठो ऐ,देश वासियों
चमन नया बसाना है
दिलों में मातृभूमि की
अलख नयी जगाना है
 
सीमा पर चल रही है
नफरत की आधियाँ, यह
कतरा कतरा खून से
लिख रही कहानियाँ,
साँस साँस सख्त है
ये आया कैसा वक़्त है
अब जर्रा जर्रा द्वेष की
बँट रही है ,निशानियाँ

आओ साथ मिलकर
अब द्वेष को मिटाना है
दिलों में मातृभूमि की
अलख नयी  जगाना  है।
उठो ऐ देशवासियों ………… !

यहाँ, ईमान बिक रहा है
स्वार्थ का व्यापार है
चले, जिन भी  राहों पर
पतित, अभ्याचार  है
कदम कदम पर धोखा है 
दहशत  को, किसने रोका है
चप्पा चप्पा  मातृभूमि के 
 पुनः - पुनः  प्रहार है

आओ, स्वार्थ के घरों में
नयी सुरंग बनाना है
दिलों में मातृभूमि की
अलख नयी जगाना  है।
उठो ऐ देशवासियों ………………।

अब मुल्क की आन का
बड़ा अहम सवाल है
फिजूल की बतियों  पे 
फिर मचता, बबाल है  .
बदला बदला वक़्त है
ये तरुण अनासक्त है
देशभक्ति की  तरंगो  से
फिर करना,  इकबाल  है

नए राष्ट्र के गगन पर
नयी पतंग उड़ाना है
दिलों में मातृभूमी की
अलख नयी जगाना है
उठो ऐ देशवासियों ………!

-- शशि पुरवार

आप सभी ब्लोगर परिवार  स्वतंत्रा दिवस की  शुभकामनाएँ -- जय हिन्द जय भारत

Wednesday, August 13, 2014

माहिया -- देशभक्ति

1
आजादी की बातें
दिल में जोश भरे
बीती काली रातें .
भाई पर वार करे
घर का  ही भेदी
छलिया संहार करे .
है अलग अलग भाषा
मान तिरंगे का
जन जन की अभिलाषा .
पीर हुई गहरी सी
सैनिक घायल है
फिर सरहद ठहरी सी .
क्या नेता है जाने
सरहद की पीरा
सैनिक ही पहचाने .
वैरी की सौगातें
आँखों  में कटती  
हर सैनिक की   रातें .
भूलों बिसरी बातें
नव किरणें  लायी
शुभमंगल सौगाते

साँचे ही करम करो
देश हमारा है
उजियारे रंग भरो।
फैली शीतल किरनें
मौसम भी बदले
फिर छंद लगे झरने.
१०
स्वर सारे गुंजित हो
गूंजे जन -गण -मन
भारत सुख रंजित हो.
११
नव रंग सजाने है
खुशियों के बादल
घर आज बुलाने है
१२ 
चैन अमन से खेले
बागों   की कलियाँ
खुशियों के हो मेले .
१३
जब शयनरत ज़माना
अपनों की  खातिर
सैनिक फर्ज निभाना।


 ---- शशि पुरवार

समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

https://sapne-shashi.blogspot.com/

linkwith

http://sapne-shashi.blogspot.com