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Monday, March 13, 2023

नारी! तुम केवल श्रद्धा हो



जय शंकर प्रसाद


"फूलों की कोमल पंखुडियाँ
बिखरें जिसके अभिनंदन में।
मकरंद मिलाती हों अपना
स्वागत के कुंकुम चंदन में।

कोमल किसलय मर्मर-रव-से
जिसका जयघोष सुनाते हों।
जिसमें दुख-सुख मिलकर
मन के उत्सव आनंद मनाते हों।

उज्ज्वल वरदान चेतना का
सौंदर्य जिसे सब कहते हैं।
जिसमें अनंत अभिलाषा के
सपने सब जगते रहते हैं।


मैं उसी चपल की धात्री हूँ
गौरव महिमा हूँ सिखलाती।
ठोकर जो लगने वाली है
उसको धीरे से समझाती।

मैं देव-सृष्टि की रति-रानी
निज पंचबाण से वंचित हो।
बन आवर्जना-मूर्त्ति दीना
अपनी अतृप्ति-सी संचित हो।

अवशिष्ट रह गई अनुभव में
अपनी अतीत असफलता-सी।
लीला विलास की खेद-भरी
अवसादमयी श्रम-दलिता-सी।

मैं रति की प्रतिकृति लज्जा हूँ
मैं शालीनता सिखाती हूँ।
मतवाली सुंदरता पग में
नूपुर सी लिपट मनाती हूँ।

लाली बन सरल कपोलों में
आँखों में अंजन सी लगती।
कुंचित अलकों सी घुंघराली
मन की मरोर बनकर जगती।

चंचल किशोर सुंदरता की
मैं करती रहती रखवाली।
मैं वह हलकी सी मसलन हूँ
जो बनती कानों की लाली।"

"हाँ, ठीक, परंतु बताओगी
मेरे जीवन का पथ क्या है?
इस निविड़ निशा में संसृति की
आलोकमयी रेखा क्या है?

यह आज समझ तो पाई हूँ
मैं दुर्बलता में नारी हूँ।
अवयव की सुंदर कोमलता
लेकर मैं सबसे हारी हूँ।

पर मन भी क्यों इतना ढीला
अपना ही होता जाता है,
घनश्याम-खंड-सी आँखों में
क्यों सहसा जल भर आता है?

सर्वस्व-समर्पण करने की
विश्वास-महा-तरू-छाया में।
चुपचाप पड़ी रहने की क्यों
ममता जगती है माया में?

छायापथ में तारक-द्युति सी
झिलमिल करने की मधु-लीला।
अभिनय करती क्यों इस मन में
कोमल निरीहता श्रम-शीला?

निस्संबल होकर तिरती हूँ
इस मानस की गहराई में।
चाहती नहीं जागरण कभी
सपने की इस सुधराई में।


नारी जीवन का चित्र यही, क्या?
विकल रंग भर देती हो,
अस्फुट रेखा की सीमा में
आकार कला को देती हो।

रूकती हूँ और ठहरती हूँ
पर सोच-विचार न कर सकती।
पगली सी कोई अंतर में
बैठी जैसे अनुदिन बकती।

मैं जब भी तोलने का करती
उपचार स्वयं तुल जाती हूँ।
भुजलता फँसा कर नर-तरु से
झूले सी झोंके खाती हूँ।


इस अर्पण में कुछ और नहीं
केवल उत्सर्ग छलकता है।
मैं दे दूँ और न फिर कुछ लूँ
इतना ही सरल झलकता है।"

"क्या कहती हो ठहरो नारी!
संकल्प अश्रु-जल-से-अपने।
तुम दान कर चुकी पहले ही
जीवन के सोने-से सपने।

नारी! तुम केवल श्रद्धा हो
विश्वास-रजत-नग पगतल में।
पीयूष-स्रोत-सी बहा करो
जीवन के सुंदर समतल में।

देवों की विजय, दानवों की
हारों का होता-युद्ध रहा।
संघर्ष सदा उर-अंतर में जीवित
रह नित्य-विरूद्ध रहा।

आँसू से भींगे अंचल पर
मन का सब कुछ रखना होगा-
तुमको अपनी स्मित रेखा से
यह संधिपत्र लिखना होगा।

Saturday, March 11, 2023

हाय, मानवी रही न नारी

 सुमित्रा नंदन पंत


हाय, मानवी रही न नारी लज्जा से अवगुंठित,

वह नर की लालस प्रतिमा, शोभा सज्जा से निर्मित!

युग युग की वंदिनी, देह की कारा में निज सीमित,

वह अदृश्य अस्पृश्य विश्व को, गृह पशु सी ही जीवित!


सदाचार की सीमा उसके तन से है निर्धारित,

पूत योनि वह: मूल्य चर्म पर केवल उसका अंकित;

अंग अंग उसका नर के वासना चिह्न से मुद्रित,

वह नर की छाया, इंगित संचालित, चिर पद लुंठित!


वह समाज की नहीं इकाई,--शून्य समान अनिश्चित,

उसका जीवन मान मान पर नर के है अवलंबित।

मुक्त हृदय वह स्नेह प्रणय कर सकती नहीं प्रदर्शित,

दृष्टि, स्पर्श संज्ञा से वह होजाती सहज कलंकित!


योनि नहीं है रे नारी, वह भी मानवी प्रतिष्ठित,

उसे पूर्ण स्वाधीन करो, वह रहे न नर पर अवसित।

द्वन्द्व क्षुधित मानव समाज पशु जग से भी है गर्हित,

नर नारी के सहज स्नेह से सूक्ष्म वृत्ति हों विकसित।


आज मनुज जग से मिट जाए कुत्सित, लिंग विभाजित

नारी नर की निखिल क्षुद्रता, आदिम मानों पर स्थित।

सामूहिक-जन-भाव-स्वास्थ्य से जीवन हो मर्यादित,

नर नारी की हृदय मुक्ति से मानवता हो संस्कृत।


Thursday, March 17, 2022

गंधों भीगा दिन


हरियाली है खेत में, अधरों पर मुस्कान
रोटी खातिर तन जला, बूँद बूँद हलकान

अधरों पर मुस्कान ज्यूँ , नैनों में है गीत
रंग गुलाबी फूल के, गंध बिखेरे प्रीत

गंध समेटे पाश में, खुशियाँ आईं द्वार
सुधियाँ होती बावरी, रोम रोम गुलनार

अंग अंग पुलकित हुआ, तम मन निखरा रूप
प्रेम गंध की पैंजनी, अधरों सौंधी धूप

अंग अंग पुलकित हुआ, तम मन निखरा रूप
प्रेम गंध की पैंजनी, अधरों सौंधी धूप

खूब लजाती चाँदनी, अधरों एक सवाल
सुर्ख गुलाबी फूल ने, खोला जिय का हाल

गंधों भीगा दिन हुआ, जूही जैसी शाम
गीतों की प्रिय संगिनी, महका प्रियवर नाम

शशि पुरवार 


Sunday, March 6, 2022

महक उठी अँगनाई - shashi purwar







चम्पा चटकी इधर डाल पर
महक उठी अँगनाई
उषाकाल नित
धूप तिहारे चम्पा को सहलाए
पवन फागुनी लोरी गाकर
फिर ले रही बलाएँ

निंदिया आई अखियों में और
सपने भरे लुनाई .

श्वेत चाँद सी
पुष्पित चम्पा कल्पवृक्ष सी लागे
शैशव चलता ठुमक ठुमक कर
दिन तितली से भागे

नेह अरक में डूबी पैंजन -
बजे खूब शहनाई.

-शशि पुरवार

Sunday, February 27, 2022

चलना हमारा काम है- शिवमंगल सिंह सुमन

 नमस्कार मित्रों

आज से एक नया खंड प्रारंभ कर रही हूं जिसमें हम हमारे हस्ताक्षरों की खूबसूरत रचनाओं का आनंद लेंगे.

इसी क्रम में आज शुरुआत करते हैं . शिवमंगल सिंह सुमन की रचना "चलना हमारा काम है ", जीवन को जोश ,  गति व हौसला प्रदान करती हुई एक रचना 

  



गति प्रबल पैरों में भरी
फिर क्यों रहूं दर दर खडा
जब आज मेरे सामने
है रास्ता इतना पडा
जब तक न मंजिल पा सकूँ,
तब तक मुझे न विराम है,
चलना हमारा काम है।

कुछ कह लिया, कुछ सुन लिया
कुछ बोझ अपना बँट गया
अच्छा हुआ, तुम मिल गई
कुछ रास्ता ही कट गया
क्या राह में परिचय कहूँ,
राही हमारा नाम है,
चलना हमारा काम है।

जीवन अपूर्ण लिए हुए
पाता कभी खोता कभी
आशा निराशा से घिरा,
हँसता कभी रोता कभी
गति-मति न हो अवरूद्ध,
इसका ध्यान आठो याम है,
चलना हमारा काम है।

इस विशद विश्व-प्रहार में
किसको नहीं बहना पडा
सुख-दुख हमारी ही तरह,
किसको नहीं सहना पडा
फिर व्यर्थ क्यों कहता फिरूँ,
मुझ पर विधाता वाम है,
चलना हमारा काम है।

मैं पूर्णता की खोज में
दर-दर भटकता ही रहा
प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ
रोडा अटकता ही रहा
निराशा क्यों मुझे?
जीवन इसी का नाम है,
चलना हमारा काम है।

साथ में चलते रहे
कुछ बीच ही से फिर गए
गति न जीवन की रूकी
जो गिर गए सो गिर गए
रहे हर दम,
उसी की सफलता अभिराम है,
चलना हमारा काम है।

फकत यह जानता
जो मिट गया वह जी गया
मूंदकर पलकें सहज
दो घूँट हँसकर पी गया
सुधा-मिक्ष्रित गरल,
वह साकिया का जाम है,
चलना हमारा काम है।


शिवमंगल सिंह सुमन


Saturday, January 2, 2021

उम्मीद के ठिकाने

 

साल नूतन आ गया है 
नव उमंगों को सजाने 
आस के उम्मीद के फिर 
बन रहें हैं नव ठिकाने

भोर की पहली किरण भी 
आस मन में है जगाती
एक कतरा धूप भी, लिखने 
लगी नित एक पाती

पोछ कर मन का अँधेरा 
ढूँढ खुशियों के खजाने
साल नूतन आ गया है
नव उमंगों को सजाने

रात बीती, बात बीती 
फिर कदम आगे बढ़ाना 
छोड़कर बातें विगत की 
लक्ष्य को तुम साध लाना

राह पथरीली भले ही 
मंजिलों को फिर जगाने 
साल नूतन आ गया है
नव उमंगों को सजाने

हर पनीली आँख के सब 
स्वप्न पूरे हों हमेशा 
काल किसको मात देगा 
जिंदगी का ठेठ पेशा

वक़्त को ऐसे जगाना 
गीत बन जाये ज़माने ​​
साल नूतन आ गया है
नव उमंगों को सजाने

- शशि पुरवार   


Friday, March 6, 2020

आखिर कब तक ...

 

आखिर कब तक दर्द सहेंगी
क्यों मरती रहेंगी बेटियाँ
अपराधों के बढते साए
पन्नों सी बिखरती बेटियाँ

कौन बचाएगा बेटी को
भेड़ियों और खूंखार से
नराधर्म की उग्र क्रूरता
दरिंदों और हत्यारों से
भोग वासना, मन के कीड़े
कैंसर का उपचार करो
जो नारी की अस्मत लुटे
वह रावण संहार करो

दूजों की कुंठा का प्रतिफल
आपद से गुजरती बेटियाँ
आखिर कब तक दर्द सहेंगी
क्यों मरती रहेंगी बेटियां

अदालतों में लंबित होती
तारीखों पर सुनवाई
दोषी मांगे दया याचिका
लड़े जीवन से तरुणाई
आज प्रकृति न्याय मांगती
सुरक्षा, अहम सवाल है
तत्व समाज व देश के लिए
बर्बरता, जन्य दीवाल है

खौफनाक आँखों में मंजर
पर, भय से सिहरती बेटियाँ
आखिर कब तक दर्द सहेंगी
क्यों मरती रहेंगी बेटियाँ

लावारिस सडकों पर भटके
मिली न मुझको मानवता
कायरता के शिविर लगे है
अपराधों का फंदा कसता
चुप्पी तोडो, शोर मचाओ 
निज तूफानों को आने दो
दोषी का सर कलम करो
स्वर कोलाहल बन जाने दो

भय मुक्त आकाश बनाओ 
हिरनों सी विचरती बेटियाँ
आखिर कब तक दर्द सहेंगी
क्यों मरती रहेंगी बेटियाँ
अपराधों के बढते साए
पन्नों सी बिखरती बेटियाँ

शशि पुरवार

Thursday, November 28, 2019

गाअो खुशहाली का गाना




चला बटोही कौन दिशा में
पथ है यह अनजाना
जीवन है दो दिन का मेला
कुछ खोना कुछ पाना

तारीखों पर लिखा गया है
कर्मों का सब लेखा
पैरों के छालों को रिसते
कब किसने देखा

भूल भुलैया की नगरी में
डूब गया मस्ताना
जीवन है दो दिन का मेला
कुछ खोना कुछ पाना

मृगतृष्णा के गहरे बादल
हर पथ पर छितराए
संयम का पानी ही मन की
रीती प्यास बुझाए

प्रतिबंधो के तट पर गाअो
खुशहाली का गाना
जीवन है दो दिन का मेला
कुछ खोना कुछ पाना

सपनों का विस्तार हुआ, तब
बाँधो मन में आशा
पतझर का मौसम भी लिखता
किरणों की परिभाषा

भाव उंमगों के सागर में
गोते खूब लगाना
जीवन है दो दिन का मेला
कुछ खोना कुछ पाना


शशि पुरवार 

Thursday, November 14, 2019

नज्म के बहाने

१ नज्म के बहाने

याद की सिमटी हुई यह गठरियाँ
खोल कर हम दिवाने हो गए
रूह भटकी कफ़िलों में इस तरह
नज्म गाने के बहाने हो गए।

बंद पलकों में छुपाया अश्क को
सुर्ख अधरों पर थिरकती चांदनी
प्रीत ने भीगी दुशाला ओढ़कर
फिर जलाई बंद हिय में अल गनी

इश्क के ठहरे उजाले पाश में
धार से झंकृत तराने हो गए
रूह भटकी कफ़िलों में इस तरह
नज्म गाने के बहाने हो गए।


गंध साँसों में महकती रात दिन
विगत में डूबा हुआ है मन मही
जुगनुओं सी टिमटिमाती रात में
लिख रहा मन बात दिल की अनकही

गीत गा दिल ने पुकारा आज फिर
जिंदगी के दिन सुहाने हो गए
रूह भटकी कफ़िलों में इस तरह
नज्म गाने के बहाने हो गए।

भाव कण लिपटे नशीली रात में
मौन मुखरित हो गई संवेदना
इत्र छिड़का आज सूखे फूल पर
फिर गुलाबों सी दहकती व्यंजना

डायरी के शब्द महके इस कदर
सोम रस सब मय पुराने हो गए
रूह भटकी कफ़िलों में इस तरह
नज्म गाने के बहाने हो गए।

याद की सिमटी हुई यह गठरियाँ
खोल कर हम दिवाने हो गए। ..!
--


शशि पुरवार 


Monday, July 29, 2019

पुष्प कुटज के


श्वेत चाँदनी पंख पसारे 
उतरी ज्यों उपवन में 
पुष्प कुटज के जीवट लगते 
चटके सुन्दर, वन में

श्वेत श्याम सा रूप सलोना 
फूल सुगन्धित काया 
काला कड़वा नीम चढ़ा है 
ग्राही शीतल माया
छाल जड़ें और बीज औषिधि 
व्याधि हरे जीवन में 
पुष्प कुटज के जीवट लगते 
चटके सुन्दर, वन में

बियावन जंगल के साथी 
पर्वत तक छितराये 
आग उगलती जेठ धूप में 
खिलकर जश्न मनाये
वृक्ष अजेय जीवनी ताकत
साधक संजीवन में 
पुष्प कुटज के जीवट लगते 
चटके सुन्दर, वन में

छोटा द्रुम फूलों से लकदक 
अवमानित सा रहता 
पाषाणों का वक्ष चीरकर 
रस का झरना बहता
चट्टानों को चीर बनाते 
ये शिवलोक विजन में 
पुष्प कुटज के जीवट लगते 
चटके सुन्दर, वन में
शशि पुरवार





Tuesday, May 7, 2019

शीशम रूप तुम्हारा

आँधी तूफानों से लड़कर 
हिम्मत कभी न हारा 
कड़ी धूप में तपकर निखरा 
शीशम रूप तुम्हारा 

अजर अमर है इसकी काया 
गुण सारे अनमोल 
मूरख मानव इसे काटकर   
मेट रहा भूगोल  

पात पात से डाल डाल तक 
शीशम सबसे न्यारा 
आँधी तूफानों से लड़कर 
हिम्मत कभी न हारा।
 

धरती का यह लाल अनोखा 
उर्वर करता आँचल 
लकड़ी का फर्नीचर घर में 
सजा रहें है हर पल 

जेठ दुपहरी शीतल छाया 
शीशम बना सहारा 
आँधी तूफानों से लड़कर 
हिम्मत कभी न हारा।  

सदा समय के साथ खड़ी थी 
पत्ती औ शाखाएं 
रोग निवारक गुण हैं इसमें 
 सतअवसाद भगाएं 

कुदरत का वरदान बना है 
शीशम प्राण फुहारा  
आँधी तूफानों से लड़कर 
हिम्मत कभी न हारा।  

वृक्ष संचित जल से ही मानव 
अपनी प्यास बुझाता 
प्राण वायु की, धन दौलत का 
खुद ही भक्षक बन जाता 

हरियाली की अनमोल धरोहर 
शीशम करे इशारा 
आँधी तूफानों से लड़कर 
हिम्मत कभी न हारा। 

शशि पुरवार 

समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

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