Thursday, September 7, 2017

व्यंग्य के तत्पुरुष

व्यंग्य के तत्पुरुष 
व्यंग्य के नीले आकाश में चमकते हुए सितारे संज्ञा, समास, संधि, विशेषण का विश्लेषण करते हुए नवरस की नयी व्याख्या लिख रहे हैं। परसाई जी के व्यंग्यों में विसंगतियों के तत्पुरुष थे।  वर्तमान में व्यंग्य की दशा कुछ पंगु सी होने लगी है।  हास्य और व्यंग्य की लकीर मिटाते - मिटाते व्यंग्य की दशा - दिशा दोनों ही नवगृह का निर्माण कर रहें हैं। व्यंग्य लिखते - लिखते हमारी क्या दशा हो गई है।  व्यंग्य को खाते - पीते , पहनते - ओढ़ते, व्यंग्य के नवरस डूबे हम जैसे स्वयं की परिभाषा को भूलने लगे है।  कई दिनों से  जहन में यह ख्याल आ रहा  है कि कई वरिष्ठ व आसमान पर चमकते सितारे व्यंग्य की रसधार में डूबे हुए व्यंग्य के तत्पुरुष बन गए है। उनकी हर अदा में व्यंग्य हैं।  चाहे वह शब्दों का झरना हो या मुख मुद्रा की भावभंगिमा, आकृतियां। 

              जैसा कि विदित है व्यंग्य को कोई नमक की संज्ञा देता है।  कोई शक्कर की उपमा प्रदान करता है।  लेकिन हर वक़्त हम नमक या इतनी मिठास का सेवन नहीं कर सकतें है। अगर शरबत बनाया जाए तो एक निश्चित अनुपात के बाद जल में शक्कर घुलना बंद हो जाती है। एक ऊब सी आने लगती है कमोवेश यही हाल व्यंग्य का भी है। क्या कोई हर वक़्त अपने पिता से - भाई से - पत्नी से व्यंगात्मक शैली में वार्तालाप कर सकता है?  पति /पत्नी या माता पिता से  जरा व्यंग्य वाणों का प्रयोग करें !दिन में ही तारे नजर आने लगेंगे।  धक्के मारकर नया रास्ता दिखाया जायेगा। 

    हमारे परमपूज्य मित्र क , , , घ चारों का गहन याराना था ।  सभी व्यंग्यकार धीरे धीरे व्यंग्य के तत्पुरुष बन गए। चारों ने अपने - अपने भक्तों को समेटना प्रारम्भ कर दिया है। जोड़ो तोड़ो की नीति चरम पर है। लोगों ने गुरु बनना व बनाना प्रारम्भ कर दिया है।  पहले सिद्ध व्यंग्यकार ढूंढकर गुरु  बनाये जाते थे।  लेकिन आज लोग व्यंग्य के मसीहा / भगवान् बनने पर आमादा हैं।  वयंग्य में भाई भतीजावाद होने लगा है।  क , , , घ अपने नए नामों से अपने झंडे फहरा रहें हैं।  कोई मामा / मामी, कोई काका - काकी, कोई  दादा बन गया।  कोई नया रिश्ता तलाश रहा है।  क , , , घ जैसे तत्पुरुष अपनी गद्दी छोड़ना नहीं चाहतें हैं। गुरु जैसे महान पद  पर आसीन यह  लोग नयी पीढ़ी को क्या दे रहें है ? आजकल ऐसे तत्पुरुषों ने नवपीढ़ी को जुगाड़ करने का तरीका दे दिया है।  अपने रिश्ते बनाओं।  दल बनाओं। और छपास करो। हर जगह राजनीति होने लगी है।  पहले कार्य करने हेतु सम्मान दिया जाता था।  आजकल सम्मान की भी जुगाड़ होने लगी है।  हर जगह  धोखधड़ी का व्यवसाय फलने फूलने लगा है। नयी पीढ़ी को सम्मान खरीदने का लालच देकर कौन सा नव निर्माण हो रहा है ? सम्मान देने हेतु वाकायदा संस्थाएं बन गयी हैं।  सबसे रूपए जमा करो और उसी से सम्मान का तमगा पहना दो।  भाषा संस्कार का क, ,  , घ न जानने वालों को भी सम्मान बाटें जा रहे हैं।  आजकल पुनः जातिवाद भी  अपना रंग दिखाने लगा है।  लोग अपनों को सम्मान दिलाकर ही गौरान्वित हो रहें है।


      रिश्ते तलाशते हुए सपाटवानी करना अच्छा नहीं है। व्यंग्य की अपनी एक गरिमा है।  रचनाकार का भी रचनाधर्म होता है।   आभाषी दुनियाँ में व्यंग्य की इतनी नदिया बह रही है जिसमे गोता लगाओ तो भी हम उसी रंगो में रंगते नजर आते हैं। चोर भी चोरी करके सीना ताने फिर रहें हैं। आत्मग्लानि शब्द जैसे इनके शब्दकोष में ही नहीं है।  सोशल मीडिया पर हर कोई रिश्ते बनाकर सीढ़ी चढ़ना चाहता है।  आज व्यंग्य व व्यंग्यकारों का मखौल बन गया है।  रस, लय और गति जहाँ नहीं है वहां रोचकता कैसे होगी। ऐसे लोगों को यदि मंच दे दिया जाये तो कौन कितनी देर ठहरेगा ज्ञात नहीं है।   
शशि पुरवार 

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