Monday, July 31, 2017

नेह की संयोजना

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हम नदी के दो किनारे 
साथ चल कर मिल न पाएँ 
घेर लेती हैं हजारों 
अनछुई संवेदनाएँ। 

ज्वार सा हिय में उठा, जब 
शब्द उथले हो गए थे 
रेत पर उभरे हुए शब्द 
संग लहर के खो गए थे 

मैं किनारे पर खड़ी थी 
छेड़ती नटखट हवाएँ 
हम नदी के दो किनारे 
साथ चलकर मिल न पाएँ 

स्वप्न भी सोने न देते 
प्रश्न भी हैं कुछ अनुत्तर  
आँख में तिरता रहा जल 
पर नदी सी प्यास भीतर।

रास्ते कंटक बहुत हैं 
बाँचते पत्थर कथाएँ 
हम नदी के दो किनारे 
साथ चल कर मिल न पाएँ 

हिमशिखर, सागर, नदी सी 
नेह की संयोजना है 
देह गंधो से परे, मन, 
आत्मा को खोजना है.

बंद पलकों से झरी, उस   
हर गजल को गुनगुनाएँ 
हम नदी के दो किनारे 
साथ चल कर मिल न पाएँ 
    -- शशि पुरवार 

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (01-08-2017) को जयंती पर दी तुलसीदास को श्रद्धांजलि; चर्चामंच 2684 पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete
  2. साथ न मिलने पर भी प्रेम की सीमा तो रहती है ...
    सुन्दर रचना है भावपूर्ण ....

    ReplyDelete

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